Tuesday, November 30, 2010

लो 'ठाकुर...' संभालों अपनी चाबियां

आधी रात को सत्ता परिवर्तन


लो 'ठाकुर...' संभालों अपनी चाबियां, ये लीला अपने बस की नहीं। राज-पाट, ठाठ-बाट। साम-दाम, दंड-भेद। राज-काज...ऐशो-आराम। मेरे किस काम के। अपन ओघड़दानी...वाघंबरधारी। एक लोटा जल..बिल्ब पत्र और विजिया, अपना काम हो गया। 'अपन' तो चले कैलाश। आपका आदेश था, चातुर्मास के पहले। लो संभाल लिए चार महीने आपके लिए। अब जाग गए हो तो संभालों अपनी सत्ता..।
आधी रात को यह सत्ता परिवर्तन हुआ उज्जयनि में। परिवर्तन के इस प्रसंग का नाम था हरि-हर मिलन। दिन था शनिवार, तिथि थी बैैंकुठ चतुर्दशी और तारीख 20 नवंबर। कहने को यह एक धार्मिक प्रसंग रहता है जिसके लिए समूची उज्जैन रात जागती है लेकिन हकीकत में यह भी एक तरह का सत्ता परिवर्तन ही है। चातुर्मास यानी वर्षाकाल के प्रारंभ होते ही ठाकुर यानी विष्णु, क्षीरसागर में शरसैय्या पर विश्राममग्न हो जाते है और हुकुमत शिव के हाथ में आ जाती है। उस शिव के हाथ में जिसने कभी किसी की चाह या कामना नहीं की। न सत्ता की और न अधिकार-ताकत की। न सम्मान का लोभ, न अपमान की चिंता। ऐसे शिव ने चार महीने कैसे राज-काज संभाला होगा? इसका जवाब हरि-हर मिलन में मिला। ऐसा लगा मानों शिव बेताब हो चाबियां देने के लिए। यह बेताबी किसी को समझ में आए या न आए, मुझे जरुर समझ में आई तब, जब जरीदार-मोतियों की मालवी पगड़ी बांधे राजा महाकाल, ठाकुर के द्वार आए। वक्त था ठीक आधी रात का यानी मध्य रात्री के 12 बजे। पालकी आती है, जयकारे लगते है और शिव, गोपाल मंदिर की सीडिय़ा चढ़ जाते है। एक 'फरमाबरदार' उन्हें गोद में उठाता है और उस पाटे पर विराज देता है जो ठीक 'ठाकुर' के सामने लगा है। एक तरफ हरि तो दूसरी तरफ हर। एक तरफ कृष्ण तो दूसरी तरफ शिव। एक तरफ गोपाल तो दूसरी तरफ महांकाल। आमने-सामने बैठे दोनों ऐसे लगते है, मानों वार्तालाप कर रहे हो । एक कह रहा हो 'ठाकुर..बड़ी भारी पड़ी रै तैरी निंदिया' तो दूसरा यह कह रहा है कि इतना घबराते क्यों हो? तुम तो कालों के काल महाकाल हो, फिर सत्ता का क्या डर? दोनों के बीच डेढ़ से पौने दो घंटा तक चर्चा होती है। इसमें वो सारे विषय शामिल थे जो शिव की सत्ता में सामने आए थे। अच्छे भी और बुरे भी। एक-एक का हिसाब-किताब रखने में घड़ी ने रात के दो बजा दिए। बिदाई की बेला आ गई। हरि उदास, हर खुश। एक सत्ता पाकर दुखी तो दूसरा हुकुमत छोड़कर सुखी। इसी का तो नाम है शिव..।

2 comments:

  1. भाईसाहब, मजा आ गया। मुझे थोड़ा अफसोस हो रहा है कि मैं आपतक कुछ देरी से पहुंचा। खैर....आपका ब्लॉग पढ़ता रहुंगा।
    अरविंद दुबे, पत्रिका, इंदौर

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  2. wah dada, harihar milan ka yeh lajwaab lekh he, jo gyan bhi badata hai...

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